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"क्या तुम्हें याद है वो छोटी-सी गाड़ी?" "नहीं? माँ से पूछो... एक-एक दिन का हिसाब बता देगी!

 

बचपन की गाड़ी — माँ से जुड़ी एक याद..

हम सबके बचपन में कोई न कोई ऐसी चीज़ होती है जो हमारे दिल के सबसे नर्म कोने में हमेशा के लिए बस जाती है। किसी के लिए वह कोई गुड़िया होती है, किसी के लिए पतंग, और मेरे लिए — "बचपन की गाड़ी"।

वो छोटी-सी लाल रंग की प्लास्टिक की गाड़ी, जिससे मैं पूरे घर में घूमता था। उस गाड़ी के पहिए अब शायद कहीं धूल में दबे होंगे, पर उसकी यादें आज भी मेरे ज़ेहन में बिल्कुल साफ़ हैं। जब भी कभी ज़िंदगी की भागदौड़ से थक जाता हूँ, न जाने क्यों वो गाड़ी याद आ जाती है। और उससे भी ज़्यादा — माँ"।

गाड़ी से जुड़ी माँ की बातें

एक दिन मैंने माँ से यूँ ही पूछ लिया,

"माँ, वो मेरी बचपन वाली गाड़ी कहाँ गई?"

माँ ने मुस्कुराकर कहा,

"तेरी वो गाड़ी? अरे बेटा, तू उस पर बैठा बैठा पूरे मोहल्ले में घूमता था। पड़ोस की चाची तक कहती थीं — 'देखो, ड्राइवर आ गया!'

कभी वो गाड़ी टूटती थी, तो तू रोने लगता था जैसे दुनिया खत्म हो गई हो। और जब मैं उसे ठीक कर देती, तो तेरा चेहरा ऐसा खिल जाता था जैसे नया खिलौना मिल गया हो।"

मैं बस माँ को देखता रह गया।

मुझे तो याद ही नहीं था कि माँ ने कितनी बार उस गाड़ी को ठीक किया, कभी दूध के डिब्बे से उसका पहिया बना, तो कभी पुराने स्क्रू से उसका हैंडल।

आज जब गाड़ी नहीं है...

आज उस गाड़ी का कोई नामोनिशान नहीं है, शायद किसी कबाड़ में चली गई होगी।

लेकिन माँ के चेहरे पर वो यादें अब भी हैं — बिल्कुल ज्यों की त्यों।

और सच कहूँ तो... माँ ही मेरी असली गाड़ी थी।

हर बार जब मैं गिरा, माँ ने मुझे संभाला।

जब कोई रास्ता न सूझा, माँ ने आगे चलकर राह दिखाई।

जब दिल टूटा, माँ की गोद ही मेरी मरहम बनी।

माँ से पूछो, सब याद है उसे

कभी कभी हम सोचते हैं कि माँ को क्या याद रहेगा?

लेकिन सच तो ये है — हमें अगर कुछ भूल भी जाए, माँ को सब याद रहता है।

हमारा पहला कदम, पहला शब्द, पहली चोट, पहला डर, पहला खिलौना…

और वो बचपन की गाड़ी भी ।

आज अगर आपके मन में कोई सवाल है,

अगर दिल किसी भूली-बिसरी चीज़ को ढूंढ रहा है,

तो बस एक बार माँ से पूछ लीजिए।

एक-एक दिन की बात बता देगी वो।

जैसे सब कुछ अभी कल ही की बात हो।

क्या आप भी कभी अपनी बचपन की गाड़ी और माँ की कहानियों को मिस करते हैं?

तो एक बार माँ के पास जाकर बैठिए...

बिना मोबाइल, बिना भागदौड़, बिना जल्दी के —

बस यूँ ही… एक बात पूछिए —

"माँ, बचपन कैसा था मेरा?"

फिर देखिए, कैसे एक-एक दिन, एक-एक पल वापस ज़िंदा हो उठेगा।

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